Sunday 23 October 2016

प्रतीक्षा

कोई नही था
उसका
जिसे वह
अपना कहती
सिवाय तुम्हारे
शायद तुम नही जानते
प्रभा की पहली किरन से
स्वप्नों की
अंतिम उड़ानों तक
प्रतिदिन प्रतिक्षण
सिर्फ तुम थे
शायद तुम नही जानते
सर्दी की धूप में
स्वेटर के धागों में
उलझते
संवेदनाओं में
आकार लेते
कभी
सरसों के खेत की
पगडण्डी पर
उसकी गोद में
सिर टिकाये
उसे निहारते
उसकी अंतरंग सी
बातों में हँसते
खिलखिलाते
उसकी बाँहों में
लिपटे
दुःख की परछाइयों पर
रौब गांठते
कभी सिरहाने
तकिये के नीचे से
निकल
मधुर मिलन की
आस में लरज़ते
अधरों के नाजुक स्पर्श
तक सिर्फ तुम थे
शायद तुम नही जानते
उसने कहा नही
कभी किसी से
सिवाय तुमसे
कि सिर्फ तुम थे
तुम जानते हो
सिर्फ तुमने महसूस किया
उस पवित्र प्रेम की गहराई को
और उड़ चले उसके संग
प्रेम के असीम अनंत
आकाश में
जहां मिट जाता है
दो होने का भाव
शायद
तुम जानते हो
फिर भी तुम खामोश रहे
और उसने भी कुछ
नही कहा कभी
किसी से
और चुपचाप
निभाई
तालीम और
संस्कार की
वह परंपरा
जिसके परिणीत
मै आया
तुम जानते हो
अब मै हूँ
जिसे वह
अपना कहती है
तुम जानते हो
पर मै नही जान पाया
क्यों हूँ
जबकि तुम हो
शायद तुम नही जानते
नही ले सकता
मै तुम्हारी जगह
और न भर सकता
हूँ उस खालीपन को
जो उत्पन्न हुआ है
मेरे होने से
बस मुझे “प्रतीक्षा”
है प्रेम के उसी असीम अनंत
आकाश में उतर “तुम” होने की
शायद तुम नही जानते
यही मेरी नियति है
शायद तुम नही जानते।
……देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत’

Saturday 15 October 2016

मनमौजी

मनमौजी

तदा यदा कदा लिए
कहाँ चले ध्वजा लिए
अरसा हुआ नया लिए
फटा मिला सिला लिए
हाव भाव ताव मे
अभाव के प्रभाव मे
पीर सिंधु पार कर
नगर नगर डगर डगर
प्रीत की शिखा लिए
द्वार खटखटा लिए|

Friday 14 October 2016

बचपन के दिन

बचपन के दिन

स्मृतियों के मेघ बरसते भीग रहा है अन्तर्मन
दूर गाँव की पगडंडी पर चहक रहा मेरा बचपन
ढल रही दुपहरी गौशाला से कजरी गईया रही पुकार
बाबा संग छोटे चरवाहों की टोली देखो है तैयार
बंधन मुक्त किन्तु अनुशासित चले झूमते जीव सभी
ज्यों उल्लास की आभा मे हुए सभी सजीव अभी
द्वेष नहीं है क्लेश नही है कहीं किसी के होने से
जात पात और भेद भाव के दैत्य लगे हैं बौने से
खेल शुरू है आज तो काका लगता है कि हारेंगे
बच्चों ने हुंकार भरी है शायद बाजी मारेंगे
वो तालाब के ऊपर जो पतली आम की डाली है
मै उस पर उल्टा झूल रहा हर फिक्र से तबीयत खाली है
कच्चे आमों से लदा हुआ यह वृक्ष न जाने किसका है
जो पत्थर मार गिरा देगा सच पूछो तो उसका है ।
दूर किसी कुटिया से देखो बूढ़ी काकी चिल्लाती है
भागो सारे बच्चों वह डंडा लेकर आती है ।
अद्भुत है यह दृश्य मनोहर भूले नहीं बिसरता है
मन बचपन की स्मृतियों मे खिलता और महकता है

Saturday 2 July 2016

रणभेरी

ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि मे कोई भी रचना अधूरी नहीं है। आवश्यकता है तो सिर्फ पहंचानने की,स्वयं मे विश्वास जगाने की । आत्म विश्वास ही सृष्टि से साक्षात्कार का प्रेरक है,अतः स्वयं मे विश्वास होना नितांत आवश्यक है । स्वयं को जानने की यह यात्रा संघर्षों से परिपूर्ण है और आत्म विश्वास से ही इस यात्रा को सहज और बनाया जा सकता है । आत्म विश्वास के बिना लक्ष्य के प्रति एकाग्रता संभव नहीं है ।
विद्यालयों एवं शैक्षणिक संस्थानों मे विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन विद्यार्थियों मे आत्म विश्वास जागता है और उन्हे जीवन के अनेक कटु एवं सुखद अनुभवों मे सहज रहने की इच्छाशक्ति प्रदान करता है।

बज उठी समय की रण-भेरी
अब रण कौशल की बारी है,
हार मिले या जीत मिले
कर्तव्य प्रथा ही प्यारी है।
साहस किसमे है कितना
किसमे कितना विश्वास भरा,
इस महासमर मे उठती
प्रश्नो की पावन चिंगारी है।
प्रतिभाओं के सूर्य कई हैं
कई सितारों के साथी,
आगे बढ़ पाऊँगा कैसे
जुगनुओं का मै बाराती ,
अपने महिमा मंडन को
बहुत किया है व्यर्थ प्रलाप,
सार्थक करने सार्थकता को
करना होगा “वार्तालाप” ।
है “असमंजस” मे चित्त मेरा
चिंता मे चित न हो जाऊँ ,
“हल्ला बोलूँ” किस कौशल से

किस कौशल से सम्मुख आऊँ ।

है “प्रस्तुति” परमार्थ की
परमार्थ इसका पूर्ण है,
शील साहस धैर्य से
अब मन मेरा सम्पूर्ण है।
साथ लिए टिम टिम जुगनू की
मै आगे बढ़ता जाता हूँ,
लौ निचोड़ अपनी सारी
मै सूरज से टकराता हूँ।
बुद्धि विवेक का अवलोकन हो
या प्रश्नो का हो प्रहार,
अति-विनीत हो सबका मै
प्रत्युत्तर देता जाता हूँ।
तन्मयता की ऐसी छवि पर
सोच मे पड़ा विधाता है,
मैंने लक्ष्य को साधा है
या लक्ष्य ने मुझको साधा है।
हार हो या जीत हो
बस युद्ध करने का जुनून है,
जब तक रहूँ मर्यादित रहूँ
फिर बिखर जाऊँ शुकून है।
है “अपूर्व” “शोभित” “अनंत”
इस महासमर की कांति किरण,
चहुंदिश चंचल चातुर्य लिए
स्वच्छंद विचरता ख्याति हिरण।
उस “बागेश्वर” की बाग के
हम “पल्लव” हैं “प्रतीक” हैं,
“अभिषेक” कर प्रकाश से
जिसने दिया सादर शरण ॥
….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
स्मृतियां – यह कविता मेरे कालेज के एक वार्षिक techincal festival “Enigma-2008” से प्रेरित है जिसमे उस वर्ष विभिन प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था जैसे-“वार्तालाप”,”असमंजस”,”प्रस्तुति”व”हल्ला बोल”।अपूर्व,शोभित,वागेश्वर,प्रतीक,अनंत व अभिषेक आदि इस वार्षिक प्रतियोगिता के आयोजक मण्डल के सदस्य थे। यह कविता मेरे सभी मित्रों एवं आयोजक मण्डल के सम्मानित सदस्यों को समर्पित है।

Friday 1 July 2016

कवितायें भी रोती हैं

कवितायें भी रोती हैं

कुछ हँसती हैं कुछ गाती हैं
कुछ जीवन का रस दे जाती हैं
कुछ देश प्रेम की बातें कर
कर्तव्य की राह दिखाती हैं
कुछ प्रेम के गीत सँजोती हैं
कुछ दिल की मीत होती हैं
करें नवयुग का जो सूत्रपात
कुछ ऐसी कविता होती हैं।
किन्तु! कर अंधकार को धूल धूसरित
जो ज्योति नयन मे सोती है
ढलते सूरज का दर्द लिए
वो कवितायें भी रोती हैं ।
ममता के अंचल से वंचित
कोई बालक भूखा रोता है
दूर शहर की बस्ती मे
किसी गलियारे मे सोता है,
नन्हें नाजुक कंधे जब
परिवार का बोझ उठाते हैं,
कलाम किताब न गुरुकुल कोई
श्रम ही श्रम अपनाते हैं,
जब सोनपरी के स्वप्नरात्रि
की भी आँखें नम होती हैं,
ढलते सूरज का दर्द लिए
तब कवितायें भी रोती हैं।
…….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Sunday 26 June 2016

शिकवा न करो

परिस्थितियाँ कैसी भी हों कोई न कोई उम्मीद सदैव रहती है। यह उम्मीद ही जीवन जीने की प्रेरणा देती है। जीवन के किसी भी पड़ाव पर स्वयं को असहाय, बेसहारा नहीं समझना चाहिए क्योंकि हर अंधेरी रात के बाद एक सुनहरी सुबह है जो उन्नति की असीम संभावनाओ को समेटे हुए है।

शिकवा न करो ए दर्द-ए-दिल
वो वक्त भी एक दिन आयेगा।
खुशियाँ ही खुशियाँ होगी
तू गीत अमन के गाएगा।
जो बीत गया उसे याद न कर
आने वाले को बर्बाद न कर,
पलकों से मोती न बरसा
कलियों की तरह मुस्काए जा ,
जिसने तुझको हैं दर्द दिये
वो वक़्त ही खुशियाँ लाएगा ।
शिकवा न करो ए दर्द-ए-दिल
वो वक्त भी एक दिन आयेगा……….
माना कि सपने टूटे हैं
आशाओं के दामन छूटें हैं ,
नए सपने फिर से सजाकर तू
आशाओं के दीप जलाएजा,
खोया है तुझसे कल जो यहाँ
फिर तुझको मिल जाएगा ।
शिकवा न करो ए दर्द-ए-दिल
वो वक्त भी एक दिन आयेगा…………
जीवन नाम है जीने का
सुख दुख और खून पसीने का,
हँसकर इसे जीना सीख ले तू
चाहे मौसम आए रोने का,
साँसे तुझसे ये कहती हैं
जो मौत से हर पल लड़ती है,
जलते रहकर दीपक कि तरह
सबको उजियारा दे जाएगा।
शिकवा न करो ए दर्द-ए-दिल
वो वक्त भी एक दिन आयेगा।
———-देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

बात छोटी सी

रात छोटी सी
प्रियतम के संग
बात छोटी सी
बड़ी हो गई
रिवाजों की दीवार
खड़ी हो गई
बात छोटी सी
कलह की वजह
जात छोटी सी
हरी हो गई
उन्माद की फसल
घात होती सी
कड़ी हो गई
बदलाव की नई
मात छोटी सी
बरी हो गई
रोक तिमिर- रथ
प्रात छोटी सी
………देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

फरियाद-अमन की राह

कहीं है आग कहीं है धूआं,
कहीं किसी के सपनों का जल रहा है आशियाँ।
कोई किसी की याद मे आँसू बहा रहा है,
कोई किसी की छाव से दामन बचा रहा है।
मझधार मे कश्तियां साहिल की तलाश कर रही हैं,
टूटे दिलों की धड़कने फरियाद कर रही हैं।
नफरत को दिलों से दूर कर दो,
प्यार के रंग सबकी आँखों मे भर दो।
बनके दुश्मन जहां को जो जलाते रहे हैं,
जिंदगी से जिंदगी को मिटाते रहे हैं।
प्यार दो उनको इतना कि भूल जाए वो खुद को,
सज़ों ले आँखों मे प्यार के आशियाने हजारों।
भूल गए हैं जो चैन और अमन की जिंदगी,
प्रेम की राह पे उनको वापस पुकारो।
वो भी इंसान हैं हम भी इंसान हैं,
फिर किसलिए अपनी राहें अलग हो।
मिटा दे दूसरों के लिए खुद की जिंदगी,
यही हम सबकी जिंदगी का सबक हो ।
कितना सुंदर हो जाएगा तब अपना जहां,
खुशबू के रंग जमी पर बरसाएगा आसमा।
दिलों मे प्यार के फूल खिलने लगेगें,
चमन मे अमन के गीत बजने लगेगे।
……………….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

तुम साथ चलो तो

ग़म की तड़पाती धूप नही
खुशियों की रिमझिम होगी,
तुम साथ चलो तो जीवन की
हर मंजिल मुमकिन होगी।
सूरज की किरणों के पंछी
गीत वफा के गायेगे,
चाँद खिलेगा मुखड़े पर
चाहत की टिम टिम होगी।
सात सुरों की सरगम का
संगीत दुआयेँ देगा,
तनहाई का शोर नही जब
पायल की छ्म-छम होगी।
जब हालात की साज़िश से
सब रिश्ते नाते-टूटेंगे,
एक साथ तुम्हारा होगा
और उम्मीदों की महफिल होगी।
……………देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

सारे जग मे अपनी पहचान बनाना है

सारे जग मे अपनी पहचान बनाना है,
फूलों से कलियों से मुस्कान चुराना है।
ग़म की वादी को हम खुशियों से सजाएगें,
हर दिल मे मोहब्बत का एक फूल खिलाएगें
अरमानों के गुलशन को सपनों से सजाना है।
काँटों भरे जीवन मे हर ग़म को झलेंगे,
अंगारों की सेजों पे बिन आह के सो लेंगे।
चाँद सी शीतलता धरती पे लाना है ।
राहें अपनी आसान नहीं
मंजिल से पहले आराम नहीं,
इन राहों पे हमको चलना है
हर दर्द की धूप को सहना है।
जीवन की सांझ से पहले मंजिल तक जाना है।
कुछ हो न मगर इस दुनिया मे
ये गीत हमारे रह जायगे,
दिल की आंखो से देखना तुम
हम दिल मे तुम्हारे आएगे।
जो गीत ये हमने गाया है अब तुमको गाना है।
………………………….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

गुरु दक्षिणा

"गुरु" अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला, अज्ञान का नाश करने वाला । गुरु जीवन यात्रा मे पथ प्रदर्शक है,बिना गुरु के यात्रा संभव नहीं है ,गुरु अपने ज्ञान का अप्रतिम अंश शिष्य को देकर समाज के लिए नयी संभावनाओ के द्वार खोलता है । गुरुओं द्वारा दिखाये गए मार्ग का अनुसरण ही सच्ची गुरु दक्षिणा है। 

जीवन है एक कठिन सफ़र
तुम पथ की शीतल छाया हो
अज्ञान के अंधकार मे
ज्ञान की उज्जवल काया हो,
तुम कृपादृष्टि फेरो जिसपे
वह अर्जुन सा बन जाता है ।
जो पूर्ण समर्पित हो तुममे
वह एकलव्य कहलाता है।
जब ज्ञान बीज के हृदय ज्योति से
कोई पुष्प चमन मे खिलता है,
मत पूछो उस उपवन को
तब कितना सुख मिलता है ।
हर सुमन खिल उठे जीवन का
यह सुंदर ध्येय तुम्हारा है,
कर्तव्य मार्ग की बाधा से
नित तुमने हमे उबारा है ।
किन्तु सच्चाई के विजय ज्ञान की
जो कहती हमे कहानी है,
आज भला उन आंखो से
छलक रहा क्यों पानी है !
पीड़ा का आँसू बोल पड़ा
धीरज के बंधन तोड़ पड़ा,
जिनको सिखलाया सदाचार
वो अनाचार के साथ चल रहे,
जिनको दिखलाया धर्म मार्ग
वो अधर्म मार्ग की ओर बढ़ रहे ।
कैसी है ये गुरु भक्ति !
और कैसी है ये गुरु दक्षिणा ?
यह सोच रही उन आंखो मे
एक दर्द भरी हैरानी है
यदि शाप ग्रस्त इस धरती को
पाप मुक्त कर देना है
तो छोड़ अधर्म की राह तुम्हें
सत्पथ पर चल देना है
सत्य धर्म की राह पर
तुम जितने कदम बढ़ाओगे
हमसे मिली शिक्षा का
तुम उतना मान बढ़ाओगे
बस यही है सच्ची गुरुभक्ति
और यही हमारी गुरु दक्षिणा
बस यही है सच्ची गुरुभक्ति
और यही हमारी गुरु दक्षिणा । ।
……………………..देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

प्रेरणा


सूरज की किरणों का कलियों से नाता क्या है
प्रीत की पवित्र पावन प्रेरणा से पूछना,
धरती की पीड़ा समझे बादलों का देश कैसे
सावन मन-भावन सुहावन से पूछना,
नम है नयन किन्तु मन है प्रसन्न क्यों
कमनीय कामिनी की कामना से पूछना,
चेतना का रवि निस्तेज क्यों है गगन मे
करबद्ध कविता की भावना से पूछना।
कितना अनोखा है ये जीवन का खेल देखो
धरती भी झूम रही अंबर भी झूम रहा,
बुझते दिये की लौ तेज हो गयी है जैसे
किरणों का पुंज नए आगमन को पूज रहा,
इठलाती नदी मिली सागर से जा के जब
वारिधि का रूप धर अंबर को चूम रहा,
कितने ही दृश्य यहाँ बिखरे हैं जीवन के
सिर को झुकाये तू किस प्रेरणा को ढूंढ रहा।

… …………..देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

एहसास


क्या मालूम था मीलों तक
यूँ पसरा सन्नाटा होगा
मेरे दिल से तेरे दिल तक
कुछ तो आता जाता होगा

मुड़कर मेरी ओर न देखा
उसने दूर जाने के बाद
मुमकिन हैं वहां कोई
उसका साथ निभाता होगा

घुटनों के बल झुक कर जब
कुछ बच्चों से बातें की
तब जाना कि तेरे दर पे
क्यों वह सर झुकाता होगा

माना कि उस ताकतवर की
जिद के आगे सब बेबस हैं
पर कोई तो डर होगा
जो उसको धमकाता होगा

आओ मिलकर रहने की
फिर एक कोशिश कर लेते हैं
मेरी तरह तेरा दिल भी
तुमको यह समझाता होगा।

..देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”




हिन्दी साहित्य काव्य संकलन

Wednesday 18 May 2016

ख़त्म मेरा किरदार करो

अब दुनिया के रंगमंच से
ख़त्म मेरा किरदार करो
अपनी मर्जी से रो पाऊँ
इतना तो उपकार करो
हर टुकड़े को जोड़ रहा हूँ
पर खुद को ही छोड़ रहा हूँ
इस टुकड़े के जुड़ने का भी
प्रबंध किसी प्रकार करो।
सपनों नें नींदे छीनी
और अपनों ने सपने छीने
बरसों की जागी आँखों अब
चिर निद्रा स्वीकार करो।


…देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Sunday 14 February 2016

तन्हाई

तन्हाई

तन्हाई से अपने रिश्ते को
मै कैसे झूठा बोलूं
लौट शाम जब घर आऊं तो
मै खुद ही दरवाजा खोलूं
तेरे मेरे दिल तक जो
एक पगडण्डी सी दिखती है
उस पर अपनी नजर टिकाए
हर पल अपना हृदय टटोलूं
जज्बातों के कारीगर तुम
कुछ पल रुक जाओ तो बेहतर
अश्कों का दरिया भीतर है
थोड़ा तो मै खुलकर रोलूं
मेरा दामन थामे जो
मयख़ाने तक ले आया है
क्यों ना उसकी खातिर मै
ग़म के प्याले भी पी लूं
……………….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Wednesday 3 February 2016

जीवन सहज सरल है साथी

जीवन सहज सरल है साथी

कभी चाँदनी की रिमझिम में
सपनों की कलियाँ महकाती,
कभी विरह की करुण वेदना
मे है रात गुजर जाती,
दोनों ही परिस्थितियों में
साथ नही होते हो तुम
फिर क्यों एक में खुशियाँ हैं
और दूजे में है ग़म ही ग़म।
माया मन का आलिंगन कर
सुख दुःख के हैं दृश्य दिखाती
जीवन सहज सरल है साथी।
लक्ष्य बृहद है ,मार्ग कठिन है,
है समय प्रतिकूल
धैर्य चित्त के चौराहे पर
मार्ग गया है भूल,
विमुख हुआ मन संकल्पों से
शिथिल पड़ी है काया,
अज्ञान का आश्रय ले
मेघ तिमिर का छाया,
परम पुनीत पवित्र प्रबल है
किन्तु लक्ष्य की सृष्टि,
जागृत हुआ विवेक
प्रखर हो गई धैर्य की दृष्टि ,
पथ प्रशस्त है ,लक्ष्य प्रकाशित
दूर हुई अज्ञानता,
साहस मुखर हुआ सम्मुख
दृढ हुई एकाग्रता,
है विस्मय अंतर्मन में
यह भेद समझ न आया ,
लक्ष्य ने साधा साधक को
या साधक ने लक्ष्य बनाया,
सत्य प्रतिष्ठित कर कण कण में
प्रकृति स्वयं है भेद मिटाती।
जीवन सहज सरल है साथी।

…………………..देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Tuesday 2 February 2016

हत्यारे

हत्यारे

चुप क्यों है तू हत्यारे
क्यों की तूने हत्या रे।
स्तब्ध धरा अम्बर जल तारे
यह घर कैसा जलता रे।
जो ना इसको अपनाना था
तो कह देते अपना ना था।
जीते जी क्यों हमको मारे
रो रो पूछ रही है माँ रे।
बात वही जो जमी नही
कि वजह हुई फिर जमीन ही।
बाग़ बगीचे आँगन सहमे
क्या पाया तू ऐसी शह में।
अब तेरा साम्राज्य रहेगा
पर न इस सम राज्य रहेगा।
देर न कर अब हत्यारे
कर मेरी भी हत्या रे।
…………….देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Tuesday 26 January 2016

साक्षात्कार

साक्षात्कार

रात्रि का प्रथम पहर
टिमटिमाते प्रकाश पुंजों से
आलोकित अंबर,
मानो भागीरथी की लहरों पे,
असंख्य दीपों का समूह,
पवन वेग से संघर्ष कर रहा हो।
दिन भर की थकान गहन निद्रा मे
परिणत हो स्वप्न लोक की
सैर करा रही थी,
और नव कल्पित आम्र-फूलों की
सुगंध लिए हवा धीमे धीमे
गा रही थी ।
कुछ विस्मृत कुछ अपरिचित सा,
किन्तु फिर भी परिचित सा,
कहीं से उठा वेदना का करुण स्वर,
निद्रा को आहत कर के चला गया;
सुप्त हृदय के अंतस मे
मानो पीड़ा का दीपक जला गया ।
नेत्र खुले तो दृश्य का दर्शन विचित्र था !
स्वप्न नही किन्तु स्वप्न सा चित्र था ।
सुलक्षिणी ओजस्विनी
ममतामयी तेजस्विनी,
परम पुनीत सम्पूर्ण
किन्तु क्यों अश्रुपूर्ण ?
संवेदनाओं का पुष्प
प्रश्नों के झंझावात मे
हिलोरें खा रहा था
और उस विरहणी की व्यथा मे
हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा था ।
चित्त की जिज्ञासा ने जब,
अपनी दृष्टि खोली;
तो वेदना की मारी,
वो विलापिनी बोली।
सृष्टि के अस्तित्व की
पवित्र आत्मा हूँ,
मै एक माँ हूँ
मै एक माँ हूँ ।
मै एक माँ हूँ !
जिसने जीवन को दिया है जीवन,
और जिया है गौरव पूर्ण जीवन।
नही छू सकी कभी मुझे,
दुख की दैवीय बयार।
लाल मेरे खड़े थे सम्मुख,
प्रतिक्षण तत्पर रहे तैयार।
किन्तु कालगति की कुटिल कृपा से
वैभव मेरा क्षीण हुआ,
स्वछंद विचरता मन मयूर
जब जंजीरों मे धीर हुआ।
तब उपवन के प्रत्येक सुमन से,
खेतों की हरियाली तक;
पनघट की पगडंडी से,
चूल्हे की रखवाली तक;
बचपन की चंचल चितवन से,
धुँधलाते चक्षु प्रखर तक;
हुए समर्पित जीवन कितने,
मातृ-ऋण की पूर्ण पहर तक।
मन मयूर को मिली मुक्ति,
सपुष्प सुमन उपवन महका।
लाल लहू के छींटो से लथपथ,
माँ का आंचल चमका ।
कैसी थी वह भक्ति भावना !
कैसा था वह स्नेह समर्पण,
व्योम पुंज भी निस्तेजित थे
जिनके आभा की लौ पर ।
स्मृति के पन्नो पर जब वे,
बीते अक्स उभरते हैं;
अंतस की पीड़ा के प्रहरी,
आँसू झर झर बहते हैं ।
स्नेह सुधा का साज़ नहीं
क्यों अश्रु-धार से अलंकृत हूँ?
है सकल साकार प्रतिष्ठा,
किन्तु हृदय से वंचित हूँ।
यदि शैल-सिंधु,सरोवर-सरिता,
के अंतस की अनुपम कविता;
निष्काषित होगी अपने ही,
हृदय पुष्प के चित्त सुधा से।
ममता क्यों न लज्जित होगी,
संस्कारों की ऐसी विधा से।
हे वीर सपूतों अब तो सुन लो
ममता के अश्रु पुकार रहे।
यह कहकर वह करुण क्रंदिनी
दृष्टि पटल से दूर हुई ।
प्रश्नों का साम्राज्य लिए,
फिर मानो उजली भोर हुई।
उस करुण वेदना के तम मे
जब हृदय विभोर हो जाता है
तीन रंग का किरण पुंज,
तब मार्ग प्रशस्त कर जाता है।
तीन रंग का किरण पुंज,
तब मार्ग प्रशस्त कर जाता है।
…………………देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Friday 22 January 2016

मधुमास

मधुमास

सुन बसंत हे मधुमास
इस बार न जल्दी आना तुम
प्रियतम मुझसे दूर हुए हैं
अबके न सताना तुम
हाथों की मेंहदी रूठी है
काज़ल रहा है ताने मार
बिंदिया चमक उठी लाली पर
आंख तरेरे है गलहार
नैनों के संग प्रीत लगाकर
सावन मत बन जाना तुम।
चहकूं कैसे अब मै बोलो
मन का पंछी साथ ले गये
दिन के उत्सव सुने कर
अरमानों की रात ले गए
संभव है स्मृतियों के
झूले पर उनके संग रहूं
मन के दरवाजे पर आकर
कुण्डी न खटकाना तुम।
…………..देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Thursday 21 January 2016

मै और हम

मै और हम

फिर वही दुनिया है वही दुनिया की रस्म है,

मै है और मै की चौखट पर बाहें फैलाये हम है

मै एक ख्याल है, एहसास है आजादी का

तन्हा है अकेला है, मिसाल है आबादी का।

इश्क़ के उजाले में हम को देखता है

और हम के नगर की डगर चुन लेता है।

मै की ये बेचैनी हम को रास आती है

मन को जो भाये वही रंग दिखाती है

मै निज मन से हार,बेबस सा लाचार

आकाँक्षाओं के सिंधु में उतर जाता है

और विरह का हिमांचल मोहब्बत  के मेघ सा

मधुर मिलन की पावन सरिता में ढल जाता है

तन्हाई का जुगनू कहीं खो जाता है

मै मै नही रहता हम हो जाता है।

फिर वही दुनिया है और दुनिया का खेल है

मै है हम है और दांव पर दोनों का मेल है।


………….देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Saturday 16 January 2016

ग़म के फूल- एक अनुभव

कुछ दिनों पहले मैंने गुलाब का एक पौधा लगाया और उसकी देखभाल की।आज उसमे एक फूल खिला है।
फूल को खिला देख आनंद की अनुभूति होती है,मै स्वंय उस आनंद का साक्षी हूँ या यूँ कहे कि मैंने उसका अनुभव किया।
यह सब मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं शायद जानता हूँ कि आनंद मेरे भीतर ही है,क्योंकि मैं उसे सरलता से अनुभव नही कर पाया इसलिए मैंने 
दूसरा साधन किया एक पौधा रोपण करके,और अपने भीतर के आनंद को उसमे प्रोजेक्ट करके उसको अनुभव किया। यह संसार भी शायद ऐसा ही है.....

जब ग़म के बादल मंडराए
नैना सावन से भर आये
तब पीड़ा का बीज बनाकर
एक उपवन में बो देता हूँ
और फिर थोड़ा रो लेता हूँ
ग़म का बादल छंट जाता है
बोझ हृदय का घट जाता है।
अश्रुधार का अध्यारोपण
पीड़ा का यह पुष्प निरूपण
ग़म के काँटों का आश्रय ले
खुशबू के संग खिल जाता है।
मन बिछड़े आनंदों से नित
हंसकर जैसे मिल जाता है।
………….
देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”


Wednesday 6 January 2016

राष्ट्र भक्त- बाल कविता

राष्ट्र भक्त

जब मै छोटा सा था
तो मेरी यह अभिलाषा थी,
हँसता हुआ देखूँ,भारत को
मन मे छोटी सी एक आशा थी।
मन की पावन आँखों ने,
कुछ देखे ख्वाब सुनहरे थे;
उन सारे ख्वाबों की अपनी
पहचानी सी भाषा थी।
अपने कोमल ख्वाबों मे,
मै भारत को एक घर पाता था;
हर कोई जिस घर की खातिर,
अपना लहू बहाता था।
जिसके आँगन की छाया मे,
नित मानवता मुसकाती थी;
अनाचार का नाम नही था
शिष्टता द्वार सजाती थी।
जीवन के नैतिक मूल्यों का,
सम्मान यहाँ सब करते थे;
आदर्शों की रक्षा करने को,
हर पल तत्पर रहते थे ।
करूँ समर्पित भाव से,
सेवा इस घर की जीवन भर।
सत्पथ पर चलना है मुझको
काँटों मे राह बनाकर।
बचपन के ये सपने मेरे
सच्चाई की राह दिखाते थे;
कुछ मरने का विश्वास भरा,
साहस मन को दे जाते थे।
अब कहाँ गए बचपन के सपने!
कहाँ गया मन का विश्वास,
कहाँ छिप गयी आदर्शों की बाते!
कहाँ खो गया कर्तव्य का एहसास।
क्या झूठे सपने थे मेरे,
क्या झूठा था विश्वास मेरा!
नही! नही! ये बातें झूठ,
मेरी शपथ नही है टूटी;
अरे! मै तो हूँ सत्पथ का राही
साहस मेरा स्रिंगार है,
रोम रोम है धैर्यवान
अपने कर्तव्य का मुझे ज्ञान है।
किन्तु हाय! ये रिश्ते नाते
पावों मे बेड़ी पहनाते है,
कर्तव्य पथ की बाधा बनकर
राहों मे तन जाते हैं।
वह प्रेम की देवी जिसने,
हँसना मुझे सिखाया है;
मेरे साथ चलकर मत पुछो
कितना कष्ट उठाया है !
मेरे संकल्पों की खातिर
कैसे-कैसे बलिदान दिये,
पथ से विचलित न हो जाऊँ कहीं मै
उसने अपने अश्रु थाम लिए।
वह देखो ममता की मूरत
बच्चे से अपने दूर हुई
जिस बच्चे की छींक पर
वह पागल सी हो जाती थी;
अपने हृदय पर पत्थर रख,
कर्तव्य पथ की बलिवेदी पर,
उसे भेंट चढ़ाने को मजबूर हुई।
उसकी करुण वेदना को
भला कौन समझ पाएगा,
यह उसका त्याग तपोबल है,
जो पथ की शीतल छाया बनकर,
लक्ष्य तक मुझे ले जाएगा।
ममता की मूरत,प्रेम की देवी
दोनों के उपकार हैं मुझ पर,
मेरे हिस्से के कष्टों को
वे नित सहते हैं हँसकर ।
किन्तु भला कब तक !
वे मेरे हिस्से की पीड़ा झेलेंगे,
अपनी ईक्षाओं की हत्या कर
कई अंतर्द्वंदोन से खलेंगे।
और उस पर यह धरम परक समाज
जो मुझे धर्म की शिक्षा देता है,
स्वयं अधर्म की अंगुली पकड़,
एक राष्ट्र भक्त के परिजन की,
नित अग्नि-परीक्षा लेता है ।
समाज के द्वेष-कपट से,
उनकी रक्षा कर पाऊँ कैसे
भारत देश की आन की खातिर
वह ममता वह प्रेम भुलाऊं कैसे।
यही अंतर्द्वंद ही मेरे
कर्तव्य पथ की बाधा है,
मन संकल्पों से विचलित है
हृदय शोक से आधा है।
यदि देश प्रेम के पथ पर
मुझे आगे बढ़ते जाना है,
सबसे पहले इस समाज की
मानवता का सबक सिखाना है।
एक राष्ट्र-भक्त के परिजन ही,
उसे ऊर्जावान बनाते हैं;
सच्चे प्रेम के अमृत से,
उनकी शक्ति बढ़ाते हैं।
उनके समुचित सम्मान से
राष्ट्र-प्रतिष्ठित होगा,
बचपन की निस्वार्थ आँखों का
सपना फिर पूरा होगा।
देशप्रेम है सर्वोपरि,
यह सत्य समझना है सबको,
पथ अलग-अलग हो जाए मगर
एक ओर चलना है सबको।
रिश्तों के बंधन न टूटे,
कर्तव्य का मार्ग भी न छूटे।
सत्य सदा उच्चारित हो,
सदाचार व्यवहारित हो।
असत्य की निंदा हो सदैव,
अनाचार अपमानित हो।

……………….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”