Wednesday 6 January 2016

राष्ट्र भक्त- बाल कविता

राष्ट्र भक्त

जब मै छोटा सा था
तो मेरी यह अभिलाषा थी,
हँसता हुआ देखूँ,भारत को
मन मे छोटी सी एक आशा थी।
मन की पावन आँखों ने,
कुछ देखे ख्वाब सुनहरे थे;
उन सारे ख्वाबों की अपनी
पहचानी सी भाषा थी।
अपने कोमल ख्वाबों मे,
मै भारत को एक घर पाता था;
हर कोई जिस घर की खातिर,
अपना लहू बहाता था।
जिसके आँगन की छाया मे,
नित मानवता मुसकाती थी;
अनाचार का नाम नही था
शिष्टता द्वार सजाती थी।
जीवन के नैतिक मूल्यों का,
सम्मान यहाँ सब करते थे;
आदर्शों की रक्षा करने को,
हर पल तत्पर रहते थे ।
करूँ समर्पित भाव से,
सेवा इस घर की जीवन भर।
सत्पथ पर चलना है मुझको
काँटों मे राह बनाकर।
बचपन के ये सपने मेरे
सच्चाई की राह दिखाते थे;
कुछ मरने का विश्वास भरा,
साहस मन को दे जाते थे।
अब कहाँ गए बचपन के सपने!
कहाँ गया मन का विश्वास,
कहाँ छिप गयी आदर्शों की बाते!
कहाँ खो गया कर्तव्य का एहसास।
क्या झूठे सपने थे मेरे,
क्या झूठा था विश्वास मेरा!
नही! नही! ये बातें झूठ,
मेरी शपथ नही है टूटी;
अरे! मै तो हूँ सत्पथ का राही
साहस मेरा स्रिंगार है,
रोम रोम है धैर्यवान
अपने कर्तव्य का मुझे ज्ञान है।
किन्तु हाय! ये रिश्ते नाते
पावों मे बेड़ी पहनाते है,
कर्तव्य पथ की बाधा बनकर
राहों मे तन जाते हैं।
वह प्रेम की देवी जिसने,
हँसना मुझे सिखाया है;
मेरे साथ चलकर मत पुछो
कितना कष्ट उठाया है !
मेरे संकल्पों की खातिर
कैसे-कैसे बलिदान दिये,
पथ से विचलित न हो जाऊँ कहीं मै
उसने अपने अश्रु थाम लिए।
वह देखो ममता की मूरत
बच्चे से अपने दूर हुई
जिस बच्चे की छींक पर
वह पागल सी हो जाती थी;
अपने हृदय पर पत्थर रख,
कर्तव्य पथ की बलिवेदी पर,
उसे भेंट चढ़ाने को मजबूर हुई।
उसकी करुण वेदना को
भला कौन समझ पाएगा,
यह उसका त्याग तपोबल है,
जो पथ की शीतल छाया बनकर,
लक्ष्य तक मुझे ले जाएगा।
ममता की मूरत,प्रेम की देवी
दोनों के उपकार हैं मुझ पर,
मेरे हिस्से के कष्टों को
वे नित सहते हैं हँसकर ।
किन्तु भला कब तक !
वे मेरे हिस्से की पीड़ा झेलेंगे,
अपनी ईक्षाओं की हत्या कर
कई अंतर्द्वंदोन से खलेंगे।
और उस पर यह धरम परक समाज
जो मुझे धर्म की शिक्षा देता है,
स्वयं अधर्म की अंगुली पकड़,
एक राष्ट्र भक्त के परिजन की,
नित अग्नि-परीक्षा लेता है ।
समाज के द्वेष-कपट से,
उनकी रक्षा कर पाऊँ कैसे
भारत देश की आन की खातिर
वह ममता वह प्रेम भुलाऊं कैसे।
यही अंतर्द्वंद ही मेरे
कर्तव्य पथ की बाधा है,
मन संकल्पों से विचलित है
हृदय शोक से आधा है।
यदि देश प्रेम के पथ पर
मुझे आगे बढ़ते जाना है,
सबसे पहले इस समाज की
मानवता का सबक सिखाना है।
एक राष्ट्र-भक्त के परिजन ही,
उसे ऊर्जावान बनाते हैं;
सच्चे प्रेम के अमृत से,
उनकी शक्ति बढ़ाते हैं।
उनके समुचित सम्मान से
राष्ट्र-प्रतिष्ठित होगा,
बचपन की निस्वार्थ आँखों का
सपना फिर पूरा होगा।
देशप्रेम है सर्वोपरि,
यह सत्य समझना है सबको,
पथ अलग-अलग हो जाए मगर
एक ओर चलना है सबको।
रिश्तों के बंधन न टूटे,
कर्तव्य का मार्ग भी न छूटे।
सत्य सदा उच्चारित हो,
सदाचार व्यवहारित हो।
असत्य की निंदा हो सदैव,
अनाचार अपमानित हो।

……………….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

No comments:

Post a Comment