Tuesday 26 January 2016

साक्षात्कार

साक्षात्कार

रात्रि का प्रथम पहर
टिमटिमाते प्रकाश पुंजों से
आलोकित अंबर,
मानो भागीरथी की लहरों पे,
असंख्य दीपों का समूह,
पवन वेग से संघर्ष कर रहा हो।
दिन भर की थकान गहन निद्रा मे
परिणत हो स्वप्न लोक की
सैर करा रही थी,
और नव कल्पित आम्र-फूलों की
सुगंध लिए हवा धीमे धीमे
गा रही थी ।
कुछ विस्मृत कुछ अपरिचित सा,
किन्तु फिर भी परिचित सा,
कहीं से उठा वेदना का करुण स्वर,
निद्रा को आहत कर के चला गया;
सुप्त हृदय के अंतस मे
मानो पीड़ा का दीपक जला गया ।
नेत्र खुले तो दृश्य का दर्शन विचित्र था !
स्वप्न नही किन्तु स्वप्न सा चित्र था ।
सुलक्षिणी ओजस्विनी
ममतामयी तेजस्विनी,
परम पुनीत सम्पूर्ण
किन्तु क्यों अश्रुपूर्ण ?
संवेदनाओं का पुष्प
प्रश्नों के झंझावात मे
हिलोरें खा रहा था
और उस विरहणी की व्यथा मे
हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा था ।
चित्त की जिज्ञासा ने जब,
अपनी दृष्टि खोली;
तो वेदना की मारी,
वो विलापिनी बोली।
सृष्टि के अस्तित्व की
पवित्र आत्मा हूँ,
मै एक माँ हूँ
मै एक माँ हूँ ।
मै एक माँ हूँ !
जिसने जीवन को दिया है जीवन,
और जिया है गौरव पूर्ण जीवन।
नही छू सकी कभी मुझे,
दुख की दैवीय बयार।
लाल मेरे खड़े थे सम्मुख,
प्रतिक्षण तत्पर रहे तैयार।
किन्तु कालगति की कुटिल कृपा से
वैभव मेरा क्षीण हुआ,
स्वछंद विचरता मन मयूर
जब जंजीरों मे धीर हुआ।
तब उपवन के प्रत्येक सुमन से,
खेतों की हरियाली तक;
पनघट की पगडंडी से,
चूल्हे की रखवाली तक;
बचपन की चंचल चितवन से,
धुँधलाते चक्षु प्रखर तक;
हुए समर्पित जीवन कितने,
मातृ-ऋण की पूर्ण पहर तक।
मन मयूर को मिली मुक्ति,
सपुष्प सुमन उपवन महका।
लाल लहू के छींटो से लथपथ,
माँ का आंचल चमका ।
कैसी थी वह भक्ति भावना !
कैसा था वह स्नेह समर्पण,
व्योम पुंज भी निस्तेजित थे
जिनके आभा की लौ पर ।
स्मृति के पन्नो पर जब वे,
बीते अक्स उभरते हैं;
अंतस की पीड़ा के प्रहरी,
आँसू झर झर बहते हैं ।
स्नेह सुधा का साज़ नहीं
क्यों अश्रु-धार से अलंकृत हूँ?
है सकल साकार प्रतिष्ठा,
किन्तु हृदय से वंचित हूँ।
यदि शैल-सिंधु,सरोवर-सरिता,
के अंतस की अनुपम कविता;
निष्काषित होगी अपने ही,
हृदय पुष्प के चित्त सुधा से।
ममता क्यों न लज्जित होगी,
संस्कारों की ऐसी विधा से।
हे वीर सपूतों अब तो सुन लो
ममता के अश्रु पुकार रहे।
यह कहकर वह करुण क्रंदिनी
दृष्टि पटल से दूर हुई ।
प्रश्नों का साम्राज्य लिए,
फिर मानो उजली भोर हुई।
उस करुण वेदना के तम मे
जब हृदय विभोर हो जाता है
तीन रंग का किरण पुंज,
तब मार्ग प्रशस्त कर जाता है।
तीन रंग का किरण पुंज,
तब मार्ग प्रशस्त कर जाता है।
…………………देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Friday 22 January 2016

मधुमास

मधुमास

सुन बसंत हे मधुमास
इस बार न जल्दी आना तुम
प्रियतम मुझसे दूर हुए हैं
अबके न सताना तुम
हाथों की मेंहदी रूठी है
काज़ल रहा है ताने मार
बिंदिया चमक उठी लाली पर
आंख तरेरे है गलहार
नैनों के संग प्रीत लगाकर
सावन मत बन जाना तुम।
चहकूं कैसे अब मै बोलो
मन का पंछी साथ ले गये
दिन के उत्सव सुने कर
अरमानों की रात ले गए
संभव है स्मृतियों के
झूले पर उनके संग रहूं
मन के दरवाजे पर आकर
कुण्डी न खटकाना तुम।
…………..देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Thursday 21 January 2016

मै और हम

मै और हम

फिर वही दुनिया है वही दुनिया की रस्म है,

मै है और मै की चौखट पर बाहें फैलाये हम है

मै एक ख्याल है, एहसास है आजादी का

तन्हा है अकेला है, मिसाल है आबादी का।

इश्क़ के उजाले में हम को देखता है

और हम के नगर की डगर चुन लेता है।

मै की ये बेचैनी हम को रास आती है

मन को जो भाये वही रंग दिखाती है

मै निज मन से हार,बेबस सा लाचार

आकाँक्षाओं के सिंधु में उतर जाता है

और विरह का हिमांचल मोहब्बत  के मेघ सा

मधुर मिलन की पावन सरिता में ढल जाता है

तन्हाई का जुगनू कहीं खो जाता है

मै मै नही रहता हम हो जाता है।

फिर वही दुनिया है और दुनिया का खेल है

मै है हम है और दांव पर दोनों का मेल है।


………….देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

Saturday 16 January 2016

ग़म के फूल- एक अनुभव

कुछ दिनों पहले मैंने गुलाब का एक पौधा लगाया और उसकी देखभाल की।आज उसमे एक फूल खिला है।
फूल को खिला देख आनंद की अनुभूति होती है,मै स्वंय उस आनंद का साक्षी हूँ या यूँ कहे कि मैंने उसका अनुभव किया।
यह सब मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं शायद जानता हूँ कि आनंद मेरे भीतर ही है,क्योंकि मैं उसे सरलता से अनुभव नही कर पाया इसलिए मैंने 
दूसरा साधन किया एक पौधा रोपण करके,और अपने भीतर के आनंद को उसमे प्रोजेक्ट करके उसको अनुभव किया। यह संसार भी शायद ऐसा ही है.....

जब ग़म के बादल मंडराए
नैना सावन से भर आये
तब पीड़ा का बीज बनाकर
एक उपवन में बो देता हूँ
और फिर थोड़ा रो लेता हूँ
ग़म का बादल छंट जाता है
बोझ हृदय का घट जाता है।
अश्रुधार का अध्यारोपण
पीड़ा का यह पुष्प निरूपण
ग़म के काँटों का आश्रय ले
खुशबू के संग खिल जाता है।
मन बिछड़े आनंदों से नित
हंसकर जैसे मिल जाता है।
………….
देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”


Wednesday 6 January 2016

राष्ट्र भक्त- बाल कविता

राष्ट्र भक्त

जब मै छोटा सा था
तो मेरी यह अभिलाषा थी,
हँसता हुआ देखूँ,भारत को
मन मे छोटी सी एक आशा थी।
मन की पावन आँखों ने,
कुछ देखे ख्वाब सुनहरे थे;
उन सारे ख्वाबों की अपनी
पहचानी सी भाषा थी।
अपने कोमल ख्वाबों मे,
मै भारत को एक घर पाता था;
हर कोई जिस घर की खातिर,
अपना लहू बहाता था।
जिसके आँगन की छाया मे,
नित मानवता मुसकाती थी;
अनाचार का नाम नही था
शिष्टता द्वार सजाती थी।
जीवन के नैतिक मूल्यों का,
सम्मान यहाँ सब करते थे;
आदर्शों की रक्षा करने को,
हर पल तत्पर रहते थे ।
करूँ समर्पित भाव से,
सेवा इस घर की जीवन भर।
सत्पथ पर चलना है मुझको
काँटों मे राह बनाकर।
बचपन के ये सपने मेरे
सच्चाई की राह दिखाते थे;
कुछ मरने का विश्वास भरा,
साहस मन को दे जाते थे।
अब कहाँ गए बचपन के सपने!
कहाँ गया मन का विश्वास,
कहाँ छिप गयी आदर्शों की बाते!
कहाँ खो गया कर्तव्य का एहसास।
क्या झूठे सपने थे मेरे,
क्या झूठा था विश्वास मेरा!
नही! नही! ये बातें झूठ,
मेरी शपथ नही है टूटी;
अरे! मै तो हूँ सत्पथ का राही
साहस मेरा स्रिंगार है,
रोम रोम है धैर्यवान
अपने कर्तव्य का मुझे ज्ञान है।
किन्तु हाय! ये रिश्ते नाते
पावों मे बेड़ी पहनाते है,
कर्तव्य पथ की बाधा बनकर
राहों मे तन जाते हैं।
वह प्रेम की देवी जिसने,
हँसना मुझे सिखाया है;
मेरे साथ चलकर मत पुछो
कितना कष्ट उठाया है !
मेरे संकल्पों की खातिर
कैसे-कैसे बलिदान दिये,
पथ से विचलित न हो जाऊँ कहीं मै
उसने अपने अश्रु थाम लिए।
वह देखो ममता की मूरत
बच्चे से अपने दूर हुई
जिस बच्चे की छींक पर
वह पागल सी हो जाती थी;
अपने हृदय पर पत्थर रख,
कर्तव्य पथ की बलिवेदी पर,
उसे भेंट चढ़ाने को मजबूर हुई।
उसकी करुण वेदना को
भला कौन समझ पाएगा,
यह उसका त्याग तपोबल है,
जो पथ की शीतल छाया बनकर,
लक्ष्य तक मुझे ले जाएगा।
ममता की मूरत,प्रेम की देवी
दोनों के उपकार हैं मुझ पर,
मेरे हिस्से के कष्टों को
वे नित सहते हैं हँसकर ।
किन्तु भला कब तक !
वे मेरे हिस्से की पीड़ा झेलेंगे,
अपनी ईक्षाओं की हत्या कर
कई अंतर्द्वंदोन से खलेंगे।
और उस पर यह धरम परक समाज
जो मुझे धर्म की शिक्षा देता है,
स्वयं अधर्म की अंगुली पकड़,
एक राष्ट्र भक्त के परिजन की,
नित अग्नि-परीक्षा लेता है ।
समाज के द्वेष-कपट से,
उनकी रक्षा कर पाऊँ कैसे
भारत देश की आन की खातिर
वह ममता वह प्रेम भुलाऊं कैसे।
यही अंतर्द्वंद ही मेरे
कर्तव्य पथ की बाधा है,
मन संकल्पों से विचलित है
हृदय शोक से आधा है।
यदि देश प्रेम के पथ पर
मुझे आगे बढ़ते जाना है,
सबसे पहले इस समाज की
मानवता का सबक सिखाना है।
एक राष्ट्र-भक्त के परिजन ही,
उसे ऊर्जावान बनाते हैं;
सच्चे प्रेम के अमृत से,
उनकी शक्ति बढ़ाते हैं।
उनके समुचित सम्मान से
राष्ट्र-प्रतिष्ठित होगा,
बचपन की निस्वार्थ आँखों का
सपना फिर पूरा होगा।
देशप्रेम है सर्वोपरि,
यह सत्य समझना है सबको,
पथ अलग-अलग हो जाए मगर
एक ओर चलना है सबको।
रिश्तों के बंधन न टूटे,
कर्तव्य का मार्ग भी न छूटे।
सत्य सदा उच्चारित हो,
सदाचार व्यवहारित हो।
असत्य की निंदा हो सदैव,
अनाचार अपमानित हो।

……………….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”