Friday 1 May 2020

हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैंने रोज सुलगते देखा

अपनी आंखों के ख्वाबों को घुट घुट कर यूँ मरते देखा,
हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैने रोज सुलगते देखा।
अश्रुमयी क्षत विक्षत विखंडित भारत माँ का दामन है,
बच्चों की किलकारी वाले हर आंगन में मातम है।
चैन ओ अमन के रखवालो को बेबस और तड़पते देखा।
हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैंने रोज सुलगते देखा।
दौर गुलामी का आया पर हृदय द्वीप आजाद रहा,
अंतिम श्वासों तक जिह्वा पर आजादी का स्वाद रहा।
भारत माँ की चरण वंदना कर वीरों को मरते देखा।
हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैंने रोज सुलगते देखा।
धर्म अलग थे पंथ अलग थे अलग-अलग थी बोली भाषा,
किन्तु राष्ट्र की बलिवेदी पर एक रही सबकी परिभाषा।
जश्न-ए-आजादी के पीछे मातम नए उभरते देखा।
हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैंने रोज सुलगते देखा।
आज न कोई बेड़ी बंधन न कोई पाबंदी है।
फिर भी जनमानस की आंखे निज स्वार्थ में अंधी है।
दुर्बल को सामर्थ्यवान के पैरों तले कुचलते देखा।
हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैंने रोज सुलगते देखा।
देश भक्ति से भक्ति पृथक है,देश अकेला सा दिखता है,
देश भक्त कहलाने वाला नित्य नई साज़िश रचता है।
राजनीति के गलियारों में भक्ति का अर्थ बदलते देखा,
हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैंने रोज सुलगते देखा।
सीमाओं पर जाने कितने घात लगाए बैठे हैं।
घर के भीतर उनसे ज्यादा आग लगाये बैठे हैं।
आस्तीन के सांपों को हर पल ज़हर उगलते देखा,
हिन्दोस्तां को अंगारों पर मैंने रोज सुलगते देखा।

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