Friday 11 December 2015

जीवनसाथी

जीवनसाथी

अंतर्मन की अभिलाषा के
किरणपुंज तुम जीवन साथी
कब आओगे सम्मुख मेरे
इतना कह दो जीवनसाथी।
देख रहा है पागल मन
भीगी भीगी अँखियों से
स्वप्न महल को छोड़ धरा पर
आ जाओ तुम जीवनसाथी।
औरों की खुशियों में शामिल
माना कि हँस लेता हूँ
अब मेरी खुशियों की रौनक
बन जाओ तुम जीवन साथी।
इस निर्मम संसार के तम मे
जाने कब छिप जाऊं
किसलय जीवन की कान्ति लिए
आ जाओ तुम जीवन साथी।
कोई सागर के दो छोर नही
जो मिल न सकेंगे जीवन में
कुछ मै चल दूं कुछ तुम चल दो
यह दूरी मिटे जीवनसाथी।
कोई चीज कहाँ अधूरी है
उस जादूगर की रचना में
मेरे होकर मन से मुझको
सम्पूर्ण करो जीवनसाथी।
.…………देवेन्द्र प्रताप वर्मा”विनीत”

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