Monday 19 February 2024

स्वतंत्रता

 दासता की बेड़ियों से अब वतन आजाद है

जुल्म की पहेलियों से अब चमन आजाद है।

लहू चमक रहा गगन में वीर बलिदानों का

धरा से आ रही महक अब वतन आजाद है।

किंतु माँ भारती की आंख में नमी है क्यों?

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?


सरहदों पे अब खड़े सशक्त पहरेदार हैं

जो दुश्मनों को रौंद दे सशस्त्र तैयार है।

भय से विमुक्त राजधानी गीत गा रही

प्रतिक्षण स्वतंत्रता के उत्सव मना रही।

किन्तु माँ भारती की आंख में नमी है क्यों?

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?


प्रगति के प्रकाश का दीप जल रहा है

उन्नति के उल्लास का दौर चल रहा है।

वक़्त के साथ नौजवानों का हूजूम है

हर ख़्वाब हकीकत में अब ढल रहा है।

किन्तु माँ भारती की आंख में नमी है क्यों?

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?


पैरों तले रौंदते है लाज की पेटियों को

माँ के लाल नोंचते हैं माँ की बेटियों को।

हाय! चीख कर निर्भया दम तोड़ देती

रोज कहीं मानवी शर्म से सर फोड़ लेती।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


रक्तरंजित है कलह से अब घरों की देहरियाँ

अहम की अंधी निगाहें भूली माँ की लोरियां।

रिश्तों में व्यापार की भूख है व्यसन है

अब कहीं मिलती नही है शिष्टता की रोटियां।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


खिलने लगा है झूठ हृदयों में महकता फूल बन

चुभने लगा है सत्य आंखों में विषैला शूल बन।

न्याय नीति नियम समर्पण राजनीति से दूर हैं

बिलखती है मानवता मानव के दर पे धूल बन।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


सब अन्न के भंडार भरे,भरे रह जाते हैं

सारे धन के कुबेर खड़े,खड़े रह जाते है।

भूख, भूखे बच्चों को निवाला बना लेती है

हाय! निर्धन निरीह हाथ धरे रह जाते हैं।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'

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