Saturday 30 June 2018

फिर आऊंगा गीत लिए

मिलन के बाद एक दूसरे से बिछड़ रहे प्रेमी प्रेमिका का संवाद-

मत रोक मुझे अब जाने दे
ऐ मीत मेरे, मेरे साथी
फिर आऊंगा गीत लिए
मनमीत मिलन के बाराती ।।

दूर चला जाऊं कितना भी
हर पल तेरे पास रहूंगा
तू खुश तो मैं भी खुश प्रियतम
तू नम तो मैं उदास रहूंगा ।।

सूना होगा घर का आंगन
सूने होंगे गलियारे
मोती बनकर बरसेंगे
मेरे दो नैना कजरारे ।।

कजरारे नैनों में मेरी
यादों के कुछ पल रखना
जब भी हो तन्हा तुम उनसे
जाकर अपना ग़म कहना ।।

दिल की बातें दिल ही जाने
नैनों  को क्या समझाना
तुझ बिन रोता है दिल मेरा
आंखे तो है एक बहाना ।।

छोड़ बहाने आँखों के 
दिल से दिल मिल जाने दे
मै फिर वापस आऊँगा
अब अश्कों को थम जाने दे ।। 

देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Tuesday 1 May 2018

मजदूर

मै हुक्म पर हुक्म दिए जा रहा था
वह श्रम पर श्रम किये जा रहा था
बिना थके बिना रुके
तन्मयता से तल्लीन
अदभुत प्रवीन
पसीने में डूबा
सामने रखे
जल से भरे
घड़े की ओर देखता है
फिर उंगलिया से
माथे को पोछता है
माथे से टूटती
पसीने की बूंदे
धरा पर गिरती,
बनाती,
सूक्ष्म जलाशय
क्षण भर को
फिर उतर जाती
धरा की सतह
से धरा के हृदय में
वह मुस्कुराता
कृतज्ञता से
धन्य धन्य
हे वसुंधरा
कुछ बूंद ही सही
अतिसूक्ष्म
ही सही
तेरी तृष्णा को
तृप्त करती हैं
मेरे श्रम की ये उपज
पर क्या मेरी तृष्णा का
ऐसा स्वाभाविक उपचार है
श्रम का भी
कुछ अधिकार है।
या फिर हर बार मुझे यूँ
ही खटना होगा।
श्रम के अधिकार के लिए
लड़ना होगा।
जिज्ञासा ने रूप धरा
प्रकट हुई वसुंधरा
बोली
ऐसे घबराता क्यों है
जो अमूल्य है उसका मूल्य
लगाता क्यों है
मुझे देख
मैं सम्पूर्ण जगत को
धारण करती हूँ
निज श्रम से रचती हूँ
गढ़ती हूँ
तुम्हारे सरीखे कितने ही
पर क्या मैंने कभी उसका
मूल्य चाहा
अधिकार मांगा
मेरी तृप्ति को स्वतः ही
तत्पर है नदिया,झरने,बादल,
सागर,सावन और
न जाने ऐसे कितने ही।
मुझसे अलग नही है तू
गौर से देख अनुभव कर
खुद में मेरी तान
मेरी तरह अमूल्य है
तेरा श्रम और
उस श्रम से उपजी मुस्कान।।

देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Tuesday 17 April 2018

क्षणिक

जवाब सीधा है सरल है
पीछे कई कठिन सवाल है
क्षणिक जो भी है
एक लंबा संघर्ष है अंतराल है
मुस्कुराहटें
जो प्रतिमान हैं
दिव्यता की पहचान हैं
अंतस में समेटे हैं
पीड़ा के कई महासिंधु
यूँ ही नही है ज्योतिर्मयी
मधुमय मुख-बिंदु।
 
देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

Wednesday 11 April 2018

धूल

बारीक महीन सी
उमड़ती घुमड़ती
हवाओं के संग
मचलती गिरती
फूलों पत्तियों पर
जमती फिसलती
तुम लाख झाड़ती
पोंछती हटाती 
दबे पांव चुपके से
फिर आ जाती
बांध दो कस कर
रख दो बंद कर
छुपा कर
किवाड़ में
कोई निशानी
जब खोलेगे
एक चादर बनी
चिढ़ाती हुई
मुस्कुराती
ताने मारती ।
कितने दिवस बीत गए
तुम्हारी याद में आये
भूल जाते हो
अपनी सबसे प्यारी
अनमोल चीज को
हृदय से लगाये
फिरते थे जिसे
गाते मुस्कुराते
हक जताते,
अनगिनत
ख्वाब सजाए ।
कुछ पुरानी किताबों,
तस्वीरों,उपहारों
पर जमी "धूल"
जो तुम्हारे लिए
है बेकार "निर्जीव" सी
प्रश्न चिन्ह लगाती
तुम्हारे बोध
तुम्हारी संवेदना पर
कण कण
दिखती है
शास्वत सजीव सी।।

देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"