Saturday 2 July 2016

रणभेरी

ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि मे कोई भी रचना अधूरी नहीं है। आवश्यकता है तो सिर्फ पहंचानने की,स्वयं मे विश्वास जगाने की । आत्म विश्वास ही सृष्टि से साक्षात्कार का प्रेरक है,अतः स्वयं मे विश्वास होना नितांत आवश्यक है । स्वयं को जानने की यह यात्रा संघर्षों से परिपूर्ण है और आत्म विश्वास से ही इस यात्रा को सहज और बनाया जा सकता है । आत्म विश्वास के बिना लक्ष्य के प्रति एकाग्रता संभव नहीं है ।
विद्यालयों एवं शैक्षणिक संस्थानों मे विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन विद्यार्थियों मे आत्म विश्वास जागता है और उन्हे जीवन के अनेक कटु एवं सुखद अनुभवों मे सहज रहने की इच्छाशक्ति प्रदान करता है।

बज उठी समय की रण-भेरी
अब रण कौशल की बारी है,
हार मिले या जीत मिले
कर्तव्य प्रथा ही प्यारी है।
साहस किसमे है कितना
किसमे कितना विश्वास भरा,
इस महासमर मे उठती
प्रश्नो की पावन चिंगारी है।
प्रतिभाओं के सूर्य कई हैं
कई सितारों के साथी,
आगे बढ़ पाऊँगा कैसे
जुगनुओं का मै बाराती ,
अपने महिमा मंडन को
बहुत किया है व्यर्थ प्रलाप,
सार्थक करने सार्थकता को
करना होगा “वार्तालाप” ।
है “असमंजस” मे चित्त मेरा
चिंता मे चित न हो जाऊँ ,
“हल्ला बोलूँ” किस कौशल से

किस कौशल से सम्मुख आऊँ ।

है “प्रस्तुति” परमार्थ की
परमार्थ इसका पूर्ण है,
शील साहस धैर्य से
अब मन मेरा सम्पूर्ण है।
साथ लिए टिम टिम जुगनू की
मै आगे बढ़ता जाता हूँ,
लौ निचोड़ अपनी सारी
मै सूरज से टकराता हूँ।
बुद्धि विवेक का अवलोकन हो
या प्रश्नो का हो प्रहार,
अति-विनीत हो सबका मै
प्रत्युत्तर देता जाता हूँ।
तन्मयता की ऐसी छवि पर
सोच मे पड़ा विधाता है,
मैंने लक्ष्य को साधा है
या लक्ष्य ने मुझको साधा है।
हार हो या जीत हो
बस युद्ध करने का जुनून है,
जब तक रहूँ मर्यादित रहूँ
फिर बिखर जाऊँ शुकून है।
है “अपूर्व” “शोभित” “अनंत”
इस महासमर की कांति किरण,
चहुंदिश चंचल चातुर्य लिए
स्वच्छंद विचरता ख्याति हिरण।
उस “बागेश्वर” की बाग के
हम “पल्लव” हैं “प्रतीक” हैं,
“अभिषेक” कर प्रकाश से
जिसने दिया सादर शरण ॥
….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
स्मृतियां – यह कविता मेरे कालेज के एक वार्षिक techincal festival “Enigma-2008” से प्रेरित है जिसमे उस वर्ष विभिन प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था जैसे-“वार्तालाप”,”असमंजस”,”प्रस्तुति”व”हल्ला बोल”।अपूर्व,शोभित,वागेश्वर,प्रतीक,अनंत व अभिषेक आदि इस वार्षिक प्रतियोगिता के आयोजक मण्डल के सदस्य थे। यह कविता मेरे सभी मित्रों एवं आयोजक मण्डल के सम्मानित सदस्यों को समर्पित है।

Friday 1 July 2016

कवितायें भी रोती हैं

कवितायें भी रोती हैं

कुछ हँसती हैं कुछ गाती हैं
कुछ जीवन का रस दे जाती हैं
कुछ देश प्रेम की बातें कर
कर्तव्य की राह दिखाती हैं
कुछ प्रेम के गीत सँजोती हैं
कुछ दिल की मीत होती हैं
करें नवयुग का जो सूत्रपात
कुछ ऐसी कविता होती हैं।
किन्तु! कर अंधकार को धूल धूसरित
जो ज्योति नयन मे सोती है
ढलते सूरज का दर्द लिए
वो कवितायें भी रोती हैं ।
ममता के अंचल से वंचित
कोई बालक भूखा रोता है
दूर शहर की बस्ती मे
किसी गलियारे मे सोता है,
नन्हें नाजुक कंधे जब
परिवार का बोझ उठाते हैं,
कलाम किताब न गुरुकुल कोई
श्रम ही श्रम अपनाते हैं,
जब सोनपरी के स्वप्नरात्रि
की भी आँखें नम होती हैं,
ढलते सूरज का दर्द लिए
तब कवितायें भी रोती हैं।
…….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”