Monday 19 February 2024

मन क्यों तेरे पीछे भागे

मन क्यों तेरे पीछे भागे

तू जीवन मे प्रीत सी लागे

तुझको देखूं या न देखूं

तू दिल की चौखट से झांके।


जुड़े हुए हम किन धागों में

सुर अलबेले हैं रागों में।

लाख हृदय हो दुख से द्वेलित

तुम संग सुख है अनुरागों में।


तुम पर दुख की काली छाया

हृदय विखंडित घायल काया

गले लगाकर तुझे छिपा लूँ

पर इतना अधिकार न पाया।


तुमको दुख में जलते देखा

खुद को घुट घुट मरते देखा

तुम प्रेम कहो या पागलपन

पागलपन में तड़पते देखा।


दया करो है मेरे ईश्वर

कृपा सिंधु हे प्रेम सरोवर

मेरे मन का त्रास मिटाओ

प्रेम पथिक बन राह दिखाओ


मैं प्रेम का मर्म न जानू

बाह्य जगत को ही पहचानूं

मुझको ज्योतिर्मय कर दो प्रभु

सत्य प्रेम करुणा भर दो प्रभु।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'

प्रेम दिवस

 इज़हार-ए- मोहब्बत का होना उस दिन शायद मुमकिन था,

वैलेंटाइन डे अर्थात, प्रेम दिवस का दिन था।

कई वर्षों की मेहनत का फल, एक कन्या मित्र हमारी थी;

जैसे सावन को बादल, वैसे वो हमको प्यारी थी।


आज सुना दूं उसको जाकर, अपने दिल की हर धड़कन;

खामोशी में चुपके से, बोला था ये पागल मन।

मन ही मन अरमानों की, मनभावन मुस्कान लिए;

पहुँचे प्रेम पार्क में हम, पल्लव पुष्प प्रतान लिए।

सरपत की सर में सर सर, सरकी समीर की सरिता में;

कई प्रेमी युगल लीन थे, अपने प्रेम ग्रंथ की कविता में।

कुछ बांट रहे थे ग़म अपने, कुछ खुशियों के संग आये थे;

कुछ मेरे जैसे भी थे जो, इंतजार में वक़्त बिताए थे।

कहीं मनाना कहीं रूठना, कहीं संवरना कहीं टूटना;

हर रूप में प्रेम छिपा था, भले कोई प्रियतम से पिटा था।


इंतजार की राह में, मैं भटक रहा था इधर उधर;

इतने में पहुंची इठलाती इतराती वो सज धज कर।

प्रेम सुधा अतिरति मनोहर, नव बसंत की नव आशा;

मुझ पर मेरा अधिकार नही, जागी कैसी ये अभिलाषा।

हे रूप नगर की शहजादी, क्यों न कर लें हम तुम शादी;

मैं प्रेम तुम्ही से करता हूँ, तुम्हे देख के आहें भरता हूँ ।

वर्षानुवर्ष व्यतीत हुए, पीड़ा के कण कण गीत हुए;

कुछ याद रहे कुछ भूल गए, मायूस बगीचे फूल गए।

आज प्रेम की इन घड़ियों में, हृदय स्वयं गुलदस्ता है;

अति विनीत हो मधुमती, यह प्रणय निवेदन करता है।


सुनकर वह कुछ न बोली, चाहत आंखों में थी भोली;

पलकों में हया नजर आयी, जब नजर मिली वह मुस्काई।

झूम उठा दिल हर्षगान कर, शब्दों के शुचि सुमन दान कर;

नाम मेरा लो अब कैसे भी, हाथ थाम लो अब जैसे भी।

दिल खुद पर इतराया जब, हौले से हाथ बढ़ाया जब;

एक कोलाहल उपवन में गूंजा, भागो मोहन, भागो राधा।


भारत माँ की जय बोलकर, संस्कृति के रक्षक गण बनकर;

कुछ लोगों ने धावा बोला, मंजर भय से थर थर डोला।

प्रेमी युगल को ढूंढ ढूंढ कर, पीट रहे थे केश खींचकर;

उन लोगों को नजर न आओ, प्रियतम जल्दी से छुप जाओ।

साथ हमारा छूटे ना, बंधन जुड़कर टूटे ना;

जैसे वह नींद से जाग गई, हाथ छुड़ा कर भाग गई।

रुक जाओ राधा चिल्लाया, हाय अभागा मोहन;

तांडव को अपनी ओर बुलाया।


अब उपवन में मैं केवल था, और उनका पूरा दल था;

बोले बालक मोहन प्यारे, आओ प्रेम का भूत उतारे।

इलू इलू खूब करते हो, देखे कितना तुम मरते हो।

एक ने अपनी पादुका निकाली, दूजे ने हवा में टोपी उछाली;

तीसरा मुँह में पान दबाए, चौथा हाथों में कड़ा घुमाए।

गर्दन फंसी देख घबराया, पर कोई हल समझ न आया;

आंख मूंदकर खड़ा रहा, जड़ अद्भुत सा अड़ा रहा।

फिर क्या बीती क्या बतलाऊ,

आंख खुली तो अस्पताल के;

बेड पर खुद को लेटा पाऊँ।


विस्मय से आंखे थी चौंकी, सिरहाने राधा थी बैठी।

बाबा गुस्से में बेकाबू, मां की आंखों में थे आंसू।

यूँ छुप छुप कर मिलना क्या, प्रेम अगर है डरना क्या;

हमको जो तू बतलाता, घर अपना उपवन हो जाता।

तेरी ओर से मैं भी आती, तू क्या है उसको समझाती।

तेरे प्रणय निवेदन के, हम सब साक्षी हो जाते;

एक उत्सव सा होता घर में, जब तुम दोनों मिल जाते।


मां खामोश हुई तो फिर, बाबा का नंबर आया;

मैं शर्मिंदा था खुद पर, नजर नही मिला पाया।

बोले तू किस आफत में पड़ा, अपनी हालत देख जरा;

सहज प्रकृति से दूर गया, अपनी संस्कृति को भूल गया।

अच्छा होता फ़ाग राग में, तू प्रेम के रंग मिलाता;

फागुन की पावन बेला में, प्रीत की पावन प्रथा निभाता।

फ़ाग प्रेम का ऋतु बसंत है, अद्भुत अतुलित मूलमंत्र है।


प्रेम की कथा सुनाऊ तुझको, सच्ची राह दिखाऊँ तुझको;

प्रेम सकल सर्वत्र व्याप्त है, हर प्राणी को स्वतः प्राप्त है।

सुन बात हमारी बेचारे, हर दिवस प्रेम का है प्यारे;

एक दिवस में बाँध इसे मत, लक्ष्य समझ कर साध इसे मत।

यह तो जीवन की धारा है, इसमे बहता जग सारा है।

पर तू यह सब समझ न पाया, पड़ा हुआ है पिटा पिटाया।


सुनकर बातें बाबा की, अश्रु पलक से छूट गए;

भ्रम के सारे बंधन मानो क्षणभर में ही टूट गए।


हृदय प्रेम से भर आया, अदभुत सौंदर्य उभर आया।

नैनों ने बातें की निश्छल, राधा मोहन अविरल अविचल;

प्रेम सफल साकार हुआ बिन शब्दों के इज़हार हुआ।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'

अंध-विश्वास

 यूँ तो उन दिनों आज वाले ग़म नही थे

फिर भी बहाने बाजी में हम किसी से कम नही थे।

जब भी स्कूल जाने का मन नही होता था,

पेट मे बड़े जोर का दर्द होता था।

जिसे देख माँ घबरा जाती,

और मैं स्कूल ना जाऊं इसलिए,

बाबू जी से टकरा जाती ।

मैं अपनी सफलता पर बहुत इतराता,

दिन भर अपनी टोली संग उत्सव मनाता।

बाबू जी मेरी चाल समझ तो जाते,

पर मां के आगे कुछ कर नही पाते।

एक बार की बात,

कई बरस के बाद,

हमारे गांव में बाइस्कोप आया;

जिसे देखने को बच्चे बूढ़े

सबका मन ललचाया।

पर बाइस्कोप देखने के समय

स्कूल की कक्षाएं चलती

जिसके कारण हम बच्चों की

दाल बिल्कुल नही गलती ।

पर मुझे भी बहानेबाजी के

नए प्रतिमान गढ़ना था,

इस बार पेट दर्द के बजाय

मिर्गी का दौरा पड़ना था।

पर नाटक उम्मीद से ज्यादा

नाटकीय हो गया,

मैं घुमड़ कर गिरा तो

चौखट से टकराया और

सच का बेहोश हो गया।

माँ बाबू जी बहुत घबराए,

गांव के लोग सब दौड़कर आये,

कल्लू, रग्घू,बरखा, बबली,

नीलम,गौतम और बेला

घर के बाहर मेरे लग गया

अच्छा खासा मेला।

किसी ने पानी के छीटें मारे,

कोई बड़ी जोर से चिल्लाया;

किसी ने पंखे से हवा दी,

तो किसी ने पकड़ के हिलाया।

अपना अपना अनुभव गाता,

हर कोई नई जुगत लगाता।

अश्रुधार में माँ डूबी थी,

बाबू जी का जी अकुलाता।

व्यर्थ हुए जब सारे करतब,

थमा कोलाहल प्रात हुई तब;

चेतनता मुखरित हो आयी,

मै जागा और ली अंगड़ाई।

फिर याद आया बाइस्कोप,

अभिनेता का अभिनय खूब,

आंख मूंदकर चिल्लाऊं,

फिर एक दम से चुप हो जाऊं,

सिर के बाल पकड़कर नोचूँ,

पैर पटक कर धूल उड़ाऊँ।

मैं अपने ही भरम में था,

अभिनय मेरा चरम पे था।

सहसा स्वर कानों में गूंजा,

मुखिया जी का शब्द समूचा,

सारा खेल बिगाड़ गया

अच्छा खासा जीत रहा था,

कि एक दम से हार गया।

सब लोगों का मन टटोल,

मुखिया जी दिए मुँह खोल,

जो यह बालक घबराया है

प्रेतों का इस पर साया है;

ओझा बाबा के पास चलो,

वरना पागल हो जाएगा;

प्रेतों का तांडव दूर करो

बालक घायल हो जायेगा।

सबने हाँ में हाँ मिलाई,

और फिर मेरी शामत आई।

भस्म रमाये औघड़ बाबा,

खुद भूतों का लगता दादा;

मेरी आँखों मे आंखे डाल,

मंत्र पढ़े और करे सवाल,

क्यों इसको तड़पाया है,

बोल कहाँ से आया है

जाता है कि चप्पल से पीटू

या धरती पर रगड़ घसीटू।

आंख खुली की खुली रह गई,

भय से मेरी घिग्घी बंध गई

अपनी ताकत आजमाता है,

तू मुझको आंख दिखाता है,

बाबा ने चप्पल से पीटा,

फिर धरती पर रगड़ घसीटा;

आग जला कर भस्म उड़ाता,

धुँआ उड़ा कर प्रेत भगाता।

ठंडे पानी के छींटे मार,

धोबी सा मुझे दिया पछाड़;

बड़े दर्द से मैं चिल्लाया,

मां की ओर उछल कर आया;

फूट फूट कर रोया खूब

भाड़ में जाये बाइस्कोप।

इक पल का न समय गंवाना,

माँ मुझको स्कूल है जाना;

मुदित हुई मां मुस्काई,

आँचल में फिर मुझे छिपाई।

बोली धन्यवाद मुखिया को,

औघड़ बाबा को सुखिया को

भूत प्रेत को मात दिया;

सबने दुख में साथ दिया।

कैसा भूत और कैसा प्रेत,

सोच रहा मै मन ही मन मे;

प्रगाढ़ हुआ मेरे नाटक से

अंध विश्वास वहां जन जन में।

सब मेरे ही कारण था,

मैं प्रत्यक्ष उदाहरण था ;

इसी भांति अंध विश्वास फैलता

भूत प्रेत स्मृति में पलता।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'

हिन्दी

 भारत माँ की भाषा हिन्दी

कवियों की अभिलाषा हिंदी,

ख्वाब संजोए अंतर्मन की

मधुमय शीत सुवासा हिन्दी।


अखिल विश्व में है सम्मान

सार्थक सकल प्रतिष्ठावान,

देश काल से परे कांतिमय

अनुपम सी उल्लासा हिंदी।


माघ महाकवि का श्रृंगार

भारतेंदु का चिर सत्कार,

तुलसी की चितवन चौपाई

नवयुग की परिभाषा हिंदी।


मीरा के सुर,भजन सूर के

कालजयी दोहे कबीर के,

चंचल दृष्टि बिहारी की रति

रहिमन की प्रत्याशा हिंदी।


सहज भाव मे पीर उकेरे

दुख दुखियों के हैं बहुतेरे,

महादेवी निराला दिनकर

सबकी शोक पिपासा हिंदी।


शब्दों से सेवा नित करते

नवांकुर आलोक उभरते,

कहाँ छोर है मानस तट का

प्रकट करे जिज्ञासा हिंदी।


हिंदी की सेवा का वर दो

हे ईश्वर वह दृष्टि मुझे दो,

देख सकूं तेरा विस्तार

तू शिव तो कैलाशा हिंदी।।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'

स्वतंत्रता

 दासता की बेड़ियों से अब वतन आजाद है

जुल्म की पहेलियों से अब चमन आजाद है।

लहू चमक रहा गगन में वीर बलिदानों का

धरा से आ रही महक अब वतन आजाद है।

किंतु माँ भारती की आंख में नमी है क्यों?

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?


सरहदों पे अब खड़े सशक्त पहरेदार हैं

जो दुश्मनों को रौंद दे सशस्त्र तैयार है।

भय से विमुक्त राजधानी गीत गा रही

प्रतिक्षण स्वतंत्रता के उत्सव मना रही।

किन्तु माँ भारती की आंख में नमी है क्यों?

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?


प्रगति के प्रकाश का दीप जल रहा है

उन्नति के उल्लास का दौर चल रहा है।

वक़्त के साथ नौजवानों का हूजूम है

हर ख़्वाब हकीकत में अब ढल रहा है।

किन्तु माँ भारती की आंख में नमी है क्यों?

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी है क्यों?


पैरों तले रौंदते है लाज की पेटियों को

माँ के लाल नोंचते हैं माँ की बेटियों को।

हाय! चीख कर निर्भया दम तोड़ देती

रोज कहीं मानवी शर्म से सर फोड़ लेती।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


रक्तरंजित है कलह से अब घरों की देहरियाँ

अहम की अंधी निगाहें भूली माँ की लोरियां।

रिश्तों में व्यापार की भूख है व्यसन है

अब कहीं मिलती नही है शिष्टता की रोटियां।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


खिलने लगा है झूठ हृदयों में महकता फूल बन

चुभने लगा है सत्य आंखों में विषैला शूल बन।

न्याय नीति नियम समर्पण राजनीति से दूर हैं

बिलखती है मानवता मानव के दर पे धूल बन।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


सब अन्न के भंडार भरे,भरे रह जाते हैं

सारे धन के कुबेर खड़े,खड़े रह जाते है।

भूख, भूखे बच्चों को निवाला बना लेती है

हाय! निर्धन निरीह हाथ धरे रह जाते हैं।

देख यह माँ भारती की आंख में नमी सी है।

धड़कने स्वतंत्रता की रुग्ण सी थमी सी है।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'

वक़्त

 वो मेरा है

उसने कहा

बार बार

कई बार

कभी गीत गज़ल

कभी गुलाब लिए

कभी अलंकरण कभी

प्रेम की किताब लिए

मेरी ज़ुल्फ़ों को घटा

चेहरे को कमल कहता

मैं जो हँस दूं

बहारों को मुकम्मल कहता

प्रेम की बारिशों में

बूँद बूँद बरसा है

मेरी ख्वाहिश में

हर दिन हर लम्हा

तरसा है।


आज जबकि मै

उसकी हूँ वो मेरा है

जाने क्यों खाली है इमारत

और अँधेरा है

शामिल है,हासिल है

पर वो एहसास नही है

वो है उसका “वक़्त”

मेरे पास नही है।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'


आ जाओ मेरी पनाह में

 कुछ अनजानी तस्वीरों में

हम खुद को ढूँढा करते हैं

जो कुछ खाली सा दिखता है

वो तुमसे पूरा करते हैं।

पाने की चाहत होगी

फिर खो देने का डर होगा

मै ही तुम हो यह समझा दो

न मंजिल होगी न सफ़र होगा ।


दरवाजे को दस्तक की

चौखट पर कल रोता पाया

रूठे लम्हों की सर्द हवाओं

तुमने कितना तड़पाया ।


जब से तुमसे दूरी रख ली

हंसने की मजबूरी रख ली

सब कुछ तेरा लौटाया बस

ग़म एक चीज जरूरी रख ली।

अफ़सोस करो इल्ज़ाम न दो

तुम भी शामिल इस गुनाह में

मुझको पनाह दे दो या फिर

आ जाओ मेरी पनाह में।


-देवेंद्र प्रताप वर्मा 'विनीत'