Sunday 23 October 2016

प्रतीक्षा

कोई नही था
उसका
जिसे वह
अपना कहती
सिवाय तुम्हारे
शायद तुम नही जानते
प्रभा की पहली किरन से
स्वप्नों की
अंतिम उड़ानों तक
प्रतिदिन प्रतिक्षण
सिर्फ तुम थे
शायद तुम नही जानते
सर्दी की धूप में
स्वेटर के धागों में
उलझते
संवेदनाओं में
आकार लेते
कभी
सरसों के खेत की
पगडण्डी पर
उसकी गोद में
सिर टिकाये
उसे निहारते
उसकी अंतरंग सी
बातों में हँसते
खिलखिलाते
उसकी बाँहों में
लिपटे
दुःख की परछाइयों पर
रौब गांठते
कभी सिरहाने
तकिये के नीचे से
निकल
मधुर मिलन की
आस में लरज़ते
अधरों के नाजुक स्पर्श
तक सिर्फ तुम थे
शायद तुम नही जानते
उसने कहा नही
कभी किसी से
सिवाय तुमसे
कि सिर्फ तुम थे
तुम जानते हो
सिर्फ तुमने महसूस किया
उस पवित्र प्रेम की गहराई को
और उड़ चले उसके संग
प्रेम के असीम अनंत
आकाश में
जहां मिट जाता है
दो होने का भाव
शायद
तुम जानते हो
फिर भी तुम खामोश रहे
और उसने भी कुछ
नही कहा कभी
किसी से
और चुपचाप
निभाई
तालीम और
संस्कार की
वह परंपरा
जिसके परिणीत
मै आया
तुम जानते हो
अब मै हूँ
जिसे वह
अपना कहती है
तुम जानते हो
पर मै नही जान पाया
क्यों हूँ
जबकि तुम हो
शायद तुम नही जानते
नही ले सकता
मै तुम्हारी जगह
और न भर सकता
हूँ उस खालीपन को
जो उत्पन्न हुआ है
मेरे होने से
बस मुझे “प्रतीक्षा”
है प्रेम के उसी असीम अनंत
आकाश में उतर “तुम” होने की
शायद तुम नही जानते
यही मेरी नियति है
शायद तुम नही जानते।
……देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत’

Saturday 15 October 2016

मनमौजी

मनमौजी

तदा यदा कदा लिए
कहाँ चले ध्वजा लिए
अरसा हुआ नया लिए
फटा मिला सिला लिए
हाव भाव ताव मे
अभाव के प्रभाव मे
पीर सिंधु पार कर
नगर नगर डगर डगर
प्रीत की शिखा लिए
द्वार खटखटा लिए|

Friday 14 October 2016

बचपन के दिन

बचपन के दिन

स्मृतियों के मेघ बरसते भीग रहा है अन्तर्मन
दूर गाँव की पगडंडी पर चहक रहा मेरा बचपन
ढल रही दुपहरी गौशाला से कजरी गईया रही पुकार
बाबा संग छोटे चरवाहों की टोली देखो है तैयार
बंधन मुक्त किन्तु अनुशासित चले झूमते जीव सभी
ज्यों उल्लास की आभा मे हुए सभी सजीव अभी
द्वेष नहीं है क्लेश नही है कहीं किसी के होने से
जात पात और भेद भाव के दैत्य लगे हैं बौने से
खेल शुरू है आज तो काका लगता है कि हारेंगे
बच्चों ने हुंकार भरी है शायद बाजी मारेंगे
वो तालाब के ऊपर जो पतली आम की डाली है
मै उस पर उल्टा झूल रहा हर फिक्र से तबीयत खाली है
कच्चे आमों से लदा हुआ यह वृक्ष न जाने किसका है
जो पत्थर मार गिरा देगा सच पूछो तो उसका है ।
दूर किसी कुटिया से देखो बूढ़ी काकी चिल्लाती है
भागो सारे बच्चों वह डंडा लेकर आती है ।
अद्भुत है यह दृश्य मनोहर भूले नहीं बिसरता है
मन बचपन की स्मृतियों मे खिलता और महकता है