Saturday 4 March 2017

जीवन

कहीं खुशी की धूप,
कहीं आंसुओं की रात है;
क्यों मिला जीवन तुम्हें
यह सोचने की बात है।
पुष्प के हृदय को छू,
अनिल ने कहा हे सुमन;
तुम चिर सुंगंध की निधि,
तुम प्रेम के प्रदीप हो।
तुम मंद मुस्कुराते,
मधुर साज़ के संगीत हो;
मै जीव मे जीवन प्रवाह की,
पवित्र अनुभूति हूँ।
तुम कुंज की कोमल कला की
कल्पना के गीत हो।
यह स्वर्ग सा सुंदर,
सघन उपवन हर्ष से हर्षित है
फिर वेदना का कौन सा मर्म,
हृदय पर अंकित है;
कह दो मुझसे निज मन का दुख,
कुछ बाँट सकूँ रख दो सम्मुख;
कितने ही घनघोर घने हो,
सुख की रवि आभा को धरे हों;;
पवन प्रबल की आकांक्षा से
वारिधि शीश झुकाते है।
और अखिलेश गगन के दीपक
रश्मि वृष्टि कर पाते हैं ।
प्रेरणा की लौ अलौकिक मे,
आलोकित हो उठा प्रसून;
बोला मुझको मार्ग दिखाओ,
मेरे मन का क्लेश मिटाओ;
मुझ तक ही क्यों सीमित है,
तृप्ति सुधा की मधुर सुगंध;
कैसे ले जाऊँ दूर भवन तक,
इस जीवन की स्नेह तरंग।
कई शोकाकुल हैं प्राणवायु मे,
नीरसता के दर्शन से;
कैसे भर दूँ उल्लास वहाँ,
अपने अंतः के कण कण से;
यही पीड़ा यही हृदय का मर्म,
जिसके तम मे व्याकुल तन-मन;
सदभावना की ऐसी छवि पर,
मोहित हुआ पवन का मन;
हाथ पकड़ ले साथ चल पड़ा
रत्न सुगंधित मनभावन।
सर्वत्र सकल आनंद बहे,
यही पुष्प की सौगात है।
क्यों मिला जीवन तुम्हें
यह सोचने की बात है।
छू रही आकाश,
पर्वत की सुनहरी चोटियाँ;
दे रही है श्वास,
धरा को प्रभा की रश्मियां;
हिम श्रृंखला का खंड एक,
अपनी लगन मे चूर है;
जैसे प्रकृति की छांव मे,
कहीं नाचता मयूर है।
वो हिमांशु दिव्यान्शु,
जीवन समर्पित कर रहा;
सरिता सदृश स्वरूप धर,
निज वेग मे बह रहा।
खग विहग तृण वृक्ष,
मानव की अतुल प्रकृति मे;
भर रहा नवप्राण जीवन की
प्रत्येक वृत्ति मे।
मेघ से अभिषेक कर,
चिर अनंत आकाश का;
रख किया हृदय मे,
तीक्ष्ण वैभव प्रकाश का;
है अर्चना परमार्थ की
परमार्थ से संज्ञात है।
क्यों मिला जीवन तुम्हें
यह सोचने की बात है ।
……..देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”