Thursday 26 November 2015

विनीत मन

विनीत मन

घर आओगे
उसने पूछा नहीं
कुछ बात है।
गुमसुम सी
केश खुले-बिखरे
हां नाराज़ है।
स्नेह की कली
विरह के नभ की
धूप में खिली।
मुरझाई सी
ह्रदय से लिपट
हरी हो गई।
अनुपम है
रूठने मनाने में
जो मिठास है।
बिखरे हुए
सुर मृदुभाव के
लय बद्ध हैं।
“विनीत”मन
गीत रच प्रेम के
करबद्ध है।

….देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”