Friday 14 October 2016

बचपन के दिन

बचपन के दिन

स्मृतियों के मेघ बरसते भीग रहा है अन्तर्मन
दूर गाँव की पगडंडी पर चहक रहा मेरा बचपन
ढल रही दुपहरी गौशाला से कजरी गईया रही पुकार
बाबा संग छोटे चरवाहों की टोली देखो है तैयार
बंधन मुक्त किन्तु अनुशासित चले झूमते जीव सभी
ज्यों उल्लास की आभा मे हुए सभी सजीव अभी
द्वेष नहीं है क्लेश नही है कहीं किसी के होने से
जात पात और भेद भाव के दैत्य लगे हैं बौने से
खेल शुरू है आज तो काका लगता है कि हारेंगे
बच्चों ने हुंकार भरी है शायद बाजी मारेंगे
वो तालाब के ऊपर जो पतली आम की डाली है
मै उस पर उल्टा झूल रहा हर फिक्र से तबीयत खाली है
कच्चे आमों से लदा हुआ यह वृक्ष न जाने किसका है
जो पत्थर मार गिरा देगा सच पूछो तो उसका है ।
दूर किसी कुटिया से देखो बूढ़ी काकी चिल्लाती है
भागो सारे बच्चों वह डंडा लेकर आती है ।
अद्भुत है यह दृश्य मनोहर भूले नहीं बिसरता है
मन बचपन की स्मृतियों मे खिलता और महकता है

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