Wednesday 11 April 2018

धूल

बारीक महीन सी
उमड़ती घुमड़ती
हवाओं के संग
मचलती गिरती
फूलों पत्तियों पर
जमती फिसलती
तुम लाख झाड़ती
पोंछती हटाती 
दबे पांव चुपके से
फिर आ जाती
बांध दो कस कर
रख दो बंद कर
छुपा कर
किवाड़ में
कोई निशानी
जब खोलेगे
एक चादर बनी
चिढ़ाती हुई
मुस्कुराती
ताने मारती ।
कितने दिवस बीत गए
तुम्हारी याद में आये
भूल जाते हो
अपनी सबसे प्यारी
अनमोल चीज को
हृदय से लगाये
फिरते थे जिसे
गाते मुस्कुराते
हक जताते,
अनगिनत
ख्वाब सजाए ।
कुछ पुरानी किताबों,
तस्वीरों,उपहारों
पर जमी "धूल"
जो तुम्हारे लिए
है बेकार "निर्जीव" सी
प्रश्न चिन्ह लगाती
तुम्हारे बोध
तुम्हारी संवेदना पर
कण कण
दिखती है
शास्वत सजीव सी।।

देवेंद्र प्रताप वर्मा"विनीत"

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